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२९ अक्तूबर १९५८
''यह सत्य है कि आध्यात्मिक प्रवृत्ति जीवनकी ओर नहीं, जीवनके परे देखनेकी रही है । यह भी सत्य है कि आध्यात्मिक परि- बर्तन सामूहिक नहीं, व्यक्तिगत ही रहा है, उसके परिणाम मानव व्यक्तिमें तो सफल रहे हैं, पर मानव समूहमें या तो असफल रहे है या परोक्ष रूपसे ही काम कर पाये हैं । प्रकृतिका आध्यात्मिक विकास अभी अपनी प्रक्रियामें ही है, अपूर्ण है, बल्कि यह कहा जा सकता है कि अभी उसका आरंभ ही हुआ है । उसका मुख्य काम रहा है आध्यात्मिक चेतना और ज्ञानके आधारको स्थापित करना और बढ़ाना और आत्माके सत्यमें जो शाश्वत है उसके अंतर्दर्शनके लिये आधार या रूपको अधिकाधिक तैयार करना । जब प्रकृति ब्यक्तिके द्वारा इस गहन विकास और रचनाको पूरी तरह पुष्ट कर दे तभी विस्तार था क्रियात्मक रूपसे प्रसार करनेके स्वभाववाली किसी भौतिक चीजकी आशा की जा सकती है था सामूहिक आध्यात्मिक जीवनके लिये कोई प्रयत्न स्थायी सफलता पा सकता है । पहले भी स्थायी आध्यात्मिक जीवनके लिये प्रयत्न किये गये है लेकिन अधिकतर व्यक्तिगत आध्यात्मिकताके रक्षाक्षेत्रके रूपमें । जब- तक प्रकृति अपने इस कामको पूरा नहीं कर लेती तबतक व्यक्तिको अपने मन और प्राणको आत्माके उस सत्यके अनुरूप पूरी तरह बदलनेकी समस्यामें ही उलझे रहना पड़ेगा जिसे वह अपनी आंतरिक सत्ता और ज्ञानमें प्राप्त कर रहा है या प्राप्त कर चुका है । समयसे पहले बड़े पैमानेपर सामूहिक आध्या- त्मिक जीवनके लिये किये गये प्रयासके दूषित होनेकी संभावना रहती है ओर इस तरह दूषित होनेके कारण हो सकते हैं क्रियात्मक पक्षमें आध्यात्मिक ज्ञानकी कमी, साधकोंकी व्यक्ति- गत कमी, साधारण मन, प्राण और शरीरकी चेतनाओंका सत्यको हथियाकर उसे यांत्रिक, अंधकारपूर्ण और म्पष्ट बनानेके लिये आक्रमण । मानसिक बुद्धि और उसकी तर्क करनेकी प्रधान शक्ति मानव जीवनके तत्व और उसके स्थायी स्वभाव- को नहीं बदल सकतीं : ये केवल तरह-तरहके यंत्रीकरण, कुशल प्रयोग, परिवर्धन और सूत्रोंको ही पैदा कर सकती हैं । लेकिन
३८४ पूरा मन भी, भले यह पूरी तरह आध्यात्मिकभावापत्र हो जाय, परिवर्तन नहीं ला सकता । आध्यात्मिकता मनको अपनेसे ऊंचे स्तरोंके साथ संपर्क रखनेमें सहायता करती है, अपने-आपसे छुटकारा पानेमें भी मदद करती है । वह व्यक्तिगत् मानव सत्ताओंकी बाह्य प्रकृतिको आंतरिक प्रभावके द्वारा ऊपर उठा सकती है । लेकिन जबतक उसे मानव समूहमें मन- को यंत्र बनाकर काम करना है, बह धरतीके जीवनपर प्रभाव डाल सकती है लेकिन जीवनका रूपांतर नहीं कर सकती । इसी कारण आध्यात्मिक मनमें यह प्रवृत्ति रही है कि वह ऐसे प्रभावोंसे संतुष्ट हो जाय और पूर्णताको किसी और ही लोकमें खोजें या हर तरहके बाहरी प्रयासको एकदम छोड़कर अपने- आपको एकमात्र व्यक्तिगत सिद्धि था मुक्तिपर एकाग्र करे । अज्ञानसे बनी प्रकृतिके पूरे-पूरे रूपांतरके लिये मनसे ज्यादा ऊंचे क्रियाशील उपकरणकी जरूरत है ।', ('लाइफ डिवाइन', पृ० ८८५-८६)
मधुमयी मां, इसका क्या अर्थ है : ' 'आध्यात्मिकता मनकी... अपने -आपसे छुटकारा पानेमें मदद करती हैं '?
जबतक मनको यह विश्वास है कि वह मानव चेत्तनाका शिखर है, कि उससे परे और ऊपर और कुछ नहीं है तबतक वह अपनी क्रियाको पूर्ण समझता है और इस क्रियाकी सीमाओंके भीतर की गयी उन्नतिसे तथा अपने क्रिया-कलापमें बढ्ती हुई स्पष्टता, यथार्थता, जटिलता, लोच और नमनीयता- से पूरी तरह संतुष्ट होता है ।
अपने-आपसे और अपने किये कामसे सदा संतुष्ट रहनेकी इसकी सहष्यवृत्ति रहती है, और यदि इसकी अपनी शक्तिसे अधिक बड़ी और ऊंची कोई शक्ति न होती जो इसे अकाट्य रूपसे इसकी सीमाएं और इसकी दीनता दिखाती रहती है तो यह उचित्त दरवाजेसे बाहर निकलनेका प्रयास कभी न करता । वह दरवाजा है सत्ताकी एक उच्चतर और सत्यतर विधामें मुक्ति ।
जब आध्यात्मिक शक्ति काम कर सकती है, जब यह अपना प्रभाव डालना आरंभ करती है तब यह मनकी इस आत्म-संतुष्टिको झकझोरती है और लगातार दबाव डालकर इसे यह अनुभव करा देती है कि इसके परे उच्चस्तर और सत्यतर कोई चीज है; तब दंभका एक छोटा-सा अंश,
३८५ जो खास इसीका हों सकता है, इस प्रभावके अधीन हार मान लेता है और जैसे ही उसे यह बोध हो जाता है कि वह सीमित और अज्ञानी है, सच्चे सत्यतक पहुंचानेमें असमर्थ है, वैसे ही मुक्ति और किसी परात्पर चीजक्ए: प्रति उन्मुक्त होनेकी संभावना शुरू हों जाती है । पर इसे उस परात्पर- की शक्ति, सौंदर्य और बलका अनुभव अवश्य होना चाहिये ताकि उसे समर्पण कर सकें । अपनेसे उच्चतर वस्तुकी उपस्थितिमें इसे अपनी असमर्थता और सीमाओंका बोध अवश्य पा सकना चाहिये, अन्यथा यह अपनी अशक्तताका अनुभव कैसे करेगा?
कमी-कभी तो एक ही संपर्क काफी होता है, ऐसी चीज जो उस आत्म- तृप्तिमें जरा-सी दरार कर दें, उसके बाद उसके परे जानेकी इच्छा, एक विमलतर ज्योति पानेकी आवश्यकता जगती है, और इस जागरणके साथ आती है उन्हें प्राप्त कर लेनेकी अभीप्सा और अभीप्साके साथ आरंभ होती है मुक्ति और एक दिन सब सीमाओंको तोडकर व्यक्ति अनंत 'प्रकाश'- की ओर खुल जाता है ।
अगर यह अनवरत दबाव साथ-ही-साथ अंदर और बाहरमें, ऊपर और गभीरतम गहराइयोंसे न पड़ता तो कोई भी चीज कभी न बदलती ।
इसके होते हुए भी कितना समय लगता है चीजोंके बदलनेमें! कितना दुराग्रही प्रतिरोध है इसनिचली प्रकृतिमें, कैसी अंध और मूर्खतापूर्ण आसक्ति है जीवनके पाशविक तरीकोंके साथ, अपनेको मुक्त करनेसे कितना इनकार!
( मौन)
मारे अमिव्यक्त जगत्में दुःख, अंधकार और मतमें पडे विश्वको उसमेंसे बाह्रा निकालनेके लिये एक अनंत 'कृपा' हमेशा काम करती रहती है । अनादि कालसे यह 'कृपा' अपने निरंतर प्रयासद्वारा कार्य करती आ दही है और इस विश्वको किसी महतर, सत्यतर और सुन्दरतर वस्तुकी आवश्यकता- के प्रति जगानेमें कितने युग लग गये.... !
अपनी ही सत्तामें मिलनेवाले प्रतिरोधसे प्रत्येक व्यक्ति अनुमान लगा सकता है कि कितने दृढ प्रतिरोधके साथ यह विश्व 'कृपा' के कार्यका विरोध करता है ।
मनुष्य निर्णायक प्रगतिके लिये तभी तैयार होता है जब वह समझ लेता है कि सब बाह्य चीजे, मानसिक धारणाएं ओर भौतिक प्रयास यदि ऊपरसे आयी 'ज्योति' और 'शक्ति'को, अपने-आपको अभिव्यक्त करनेकी चोटा करते हुए 'सत्य'को पूरी तरह अर्पित नहीं हैं तो बेकार हैं, व्यर्थ है । अतः
एकमात्र सच्चा प्रभावकारी मनोभाव है 'उसको' संपूर्ण, सर्वांग, उत्साह और भक्तिभरा आत्मदान जो हमारे ऊपर अवस्थित है, एकमात्र उसीमें सब कुछ बदल डालनेकी शक्ति है ।
जब अंतःस्थित 'आत्मा' के प्रति खुल जाता है तो उसे उस उच्चतर जीवनका पहला पूर्वास्वाद मिल जाता है जो ज़ीने योग्य है; फिर आती है उसतक उठनेकी चाह, वहांतक पहुंचनेकी आशा; फिर यह विश्वास कि यह सम्भव है और अंतमें आवश्यक प्रयास करनेकी शक्ति और अंततक जानेका निश्चय ।
हप अपने-आपको जगाना होगा, तभी विजय मिल सकती है ।
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